नागरिकता संशोधन विधेयक ‘2019’ और पक्ष विपक्ष

December 12, 2019 | samvaad365

केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 लोकसभा के बाद अब राज्यसभा से भी पास करवा दिया है. उच्च सदन यानी कि राज्यसभा में विधेयक के पक्ष में 125 मत पड़े जबकि विरोध में 105. इस विधेयक पर सड़क से लेकर सदन तक बवाज जारी है. देश के कई हिस्सों में खासतौर पर पूर्वोत्तर में भारी विरोध के बाद भी सरकार ने इस विधेयक को पास कर दिया. राज्यसभा में विधेयक को स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजने के लिए भी कई प्रस्ताव आए और संशोधन के लिए भी कई प्रस्ताव आए लेकिन सभी प्रस्ताव अल्पमत में गिर गए. यानी कि अब नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन किया जाएगा. इस विधेयक में बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हुए धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने का प्रस्ताव किया गया है.

 

सदन में चली जोरदार बहस

नागरिकता संशोधन विधेयक पर पक्ष विपक्ष में जोरदार बहस चली. गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि यह बिल भारत के अल्पसंख्यकों को किसी भी तरह से प्रभावित नहीं करता है. बल्कि धार्मिक रूप से प्रताड़ित होने वालों के लिए यह विधेयक एक नई सुबह है. तो वहीं विपक्ष लगातार संविधान का हवाला देता रहा और इसे संवैधानिक रूप से गलत बताता रहा. इससे पहले भी साल 2016 में केंद्र सरकार ने नागरिकता संसोधन विधेयक पेश किया था. लेकिन लोकसभा में पास होने के बाद इसे राज्य विरोध के चलते राज्यसभा में पेश नहीं किया गया.

देश के कई हिस्सों में प्रदर्शन करने वाले लोगों का कहना है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है अतः धर्म के आधार पर नारिकता संविधान के खिलाफ है. इस लेख में हम समझेंगे की यह विधेयक क्या है इसके पक्ष विपक्ष क्या कहते हैं.

नागरिकता संशोधन विधेयक 2019

सीधी भाषा में यह विधेयक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए वहां के अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देगा. इन अल्पसंख्यकों में हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई हैं. प्रावधान यह कहता है कि 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत में आकर रहने वाले इन लोगों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा.

1955 का नागरिकता अधिनियम इन अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता देने से रोकता है. अधिनियम के मुताबिक अवैध प्रवासी वह हो जो वैध पासपोर्ट या यात्रा दस्तावेजों के बिना ही भारत में प्रवेश कर चुका हो या फिर जो अपनी निर्धारित समय सीमा से अधिक समय तक भारत में रह रहा हो.

वर्ष 1955 का अधिनियम कुछ शर्तों को पूरा करने वाले व्यक्ति, अवैध प्रवासियों के अतिरिक्त को नागरिकता प्राप्ति के लिये आवेदन करने की अनुमति प्रदान करता है. अधिनियम के अनुसार इसके लिये अन्य बातों के अलावा उन्हें आवेदन की तिथि से 12 महीने पहले तक भारत में निवास और 12 महीने से पहले 14 वर्षों में से 11 वर्ष भारत में बिताने की शर्त पूरी करनी पड़ती है.

इस संसोधन के बाद अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी तथा ईसाई प्रवासियों के लिये 11 वर्ष की शर्त को घटाकर 5 वर्ष करने का प्रावधान है. अब अगर उन व्यक्तियों को नगारिकता मिलती है तो उन्हें तब से भारत का नागरिक माना जाएगा जब से वह भारत में आए हैं. साथ ही उनके खिलाफ चल रही सभी कार्यवाहियां बंद कर दी जाएंगी.

खास बात यह भी है कि अवैध प्रवासियों के लिये नागरिकता संबंधी प्रावधान संविधान की छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों पर लागू नहीं होंगे.

इसके अलावा ये प्रावधान बंगाल (ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873) के तहत अधिसूचित ‘इनर लाइन’ क्षेत्रों पर भी लागू नहीं होंगे. आपको यहां पर यह भी बता दें कि इन क्षेत्रों में भारतीयों की यात्राओं को इनर लाइन परमिट के माध्यम से विनियमित किया जाता है. और वर्तमान में यह परमिट व्यवस्था अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैंड में लागू है.

विवाद क्या है?

नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर कहा जा रहा है कि यह एक धर्म विशेष के खिलाफ है. और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है. आलोचकों का कहना है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जा सकता.

क्या है आर्टिकल 14 – अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है. और यह कानून भारतीय तथा विदेशियों को समान रूप से मिलता है. विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि इस कानून से अवैध प्रवासियों का वर्गीकरण मुस्लिम और गैर मुस्लिम में हो जाएगा जो कि धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है.

पूर्वोत्तर में है ज्यादा विरोध

इस बिल पर पूर्वोत्तर और खासकर असम में विरोध ज्यादा है. वहां के लोग इसे वर्ष 1985 के असम समझौते से पीछे हटने के एक कदम के रूप में देख रहे हैं. साथ ही पूर्वोत्तर के कई अन्य राज्यों में भी इसे लेकर काफी विरोध है. क्योंकि वहाँ के नागरिकों को नागरिकता संशोधन विधेयक के कारण जननांकीय परिवर्तन का डर है यानी कि सामाजिक आर्थिक अधिकारों और स्थितियों को लेकर वह चिंतित हैं.

क्या है असम समझौता

साल 1971 में पूर्व पाकिस्तान यानी कि वर्तमान बांग्लादेश के खिलाफ पाकिस्तानी सेना ने हिंसक कार्रवाई की थी. इस दौरान करीब 10 लाख लोगों ने असम में शरण ली. बांग्लादेश बनने के बाद अधिकांश लोग वापस लौट गए. लेकिन उसके बाद भी बड़ी संख्या में बांग्लादेशी असम में ही अवैध रूप से रहने लगे. इसके बाद बढ़ती जनसंख्या से असम में यहां के मूल निवासियों को भाषायी, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना पैदा हुई इसको लेकर 1978 के बाद आंदोलन भी हुए. हिंसा और आंदोलन के बाद 15 अगस्त 1985 को केंद्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच समझौता हुआ इसी को असम समझौता कहा जाता है. इसके मुताबिक 25 मार्च, 1971 के बाद असम में आए सभी बांग्लादेशी नागरिकों को यहाँ से जाना होगा, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान. इस तरह यह समझौता अवैध प्रवासियों के बीच धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं करता है. और यही कारण है कि इस विधेयक को इसके खिलाफ माना जा रहा है.

इस समझौते के तहत 1951 से 1961 के बीच असम आए सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और मतदान का अधिकार देने का फैसला लिया गया। साथ ही 1961 से 1971 के बीच असम आने वाले लोगों को नागरिकता तथा अन्य अधिकार दिये गए. लेकिन उन्हें मतदान का अधिकार नहीं दिया गया. लेकिन अब इस विधेयक के बाद 1971 से 2014 तक की खिड़की बन जाएगी.

क्या है सरकार का पक्ष

बिल पेश करते वक्त गृह मंत्री अमित शाह ने भी इस बात पर जोर दिया कि इन प्रवासियों ने अपने अपने देशों में धार्मिक आधार पर कई भेदभावों और उत्पीड़न का सामना किया है. इसलिए इन्हें अधिकार देकर इनके हितों में काम किया जाएगा. सरकार ने यह भी तर्क दिया कि इन छह अल्पसंख्यक समुदायों सहित भारतीय मूल के कई लोग नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत नागरिकता पाने में असफल रहते हैं साक्ष्य नहीं दे पाते जिसके बाद उन्हें देशीयकरण के जरिए नागरिकता पाने के लिए आवेदन करना पड़ता है जो कि एक लंबी प्रक्रिया है. साथ ही मुस्लिमों के लिए भी यही प्रक्रिया बनी रहेगी.

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