उत्तराखंडी विवाह संस्कारों को परंपरागत रूप से आज के परिवेश में प्रस्तुत किये जाने के लिए प्रयास किए गए

May 5, 2023 | samvaad365

देहरादून – उत्तराखंडी विवाह संस्कारों को परंपरागत रूप से आज के परिवेश में प्रस्तुत किये जाने के लिए प्रयास किए गए जिससे कि पहाड़ी संस्कृति अपनी मौलिकता को प्राप्त हो सके तथा हम अपने रीति रिवाज को पहचान प्रदान कर सके। इस कड़ी में “अतिथि देवो भव “की भावना सहित बारातियों का स्वागत परंपरागत ढोल दमोह मशक बीन के साथ हमारी पहाड़ी वेशभूषा में सज्जित महिलाओं द्वारा किया गया इसमें उनका टीका किया गया , पहाड़ी घुघूती मिठाई खिलाई गई। इसके पश्चात मंगल स्नान अर्थात हल्दी हाथ ” बाने”में सबसे पहले पकौड़ी के लिए परंपरागत पिसाई के लिए सिलबट्टे में महिलाओं द्वारा उड़द की भीगी दाल पीसी गई और इसके पकोड़े बनाए गए तथा हल्दी हाथ अर्थात बाने में कच्ची हल्दी कूट करके दुल्हन को लगायी गयी हल्दी औषधीय गुण के साथ शारीरिक त्वचा मे ओज लाती है तथा हमारे धार्मिक अनुष्ठान मे पवित्र मानी जाती है ।हमारे मंगल गीतों के बीच में इसे संपन्न कराया गया मांगल गीतों मे सभी देवताओ और पितृ देवो का आव्हान किया जाता है फिर सभी न्यूतेर अर्थात नाते रिश्तेदार का स्वागत किया जाता है इसी कड़ी में मामा ” कल्यो” अर्थात मिठाई की कंडी लेकर के अपनी भांजी की शादी में उपस्थित होता है उसके दृश्य को यहां पर प्रदर्शित किया गया।

इसके पश्चात हमारे परंपरागत नृत्य शैली थडिया चौफला जो उत्साह और उत्सव के नृत्य हैं सामूहिक रूप से इस मंगल कार्य में इसे प्रस्तुत किया गया ।इसके पश्चात दिन में “पंगत” अर्थात बैठक भोज का आयोजन किया गया जिसमें बारातियों को परंपरागत तरीके से बूरा भात घी खिलाया गया पुराने जमाने मे बारात को पहाड़ी रास्ते मे जाने के लिए ऊर्जा या ताकत के लिए बरातियो को इसे खिलाया जाता था ।साथ ही बरातियो को हमारे लाल भात ,झंगोरा, पहाड़ी मिक्स दाल, मूला थिचोडी तथा झगोरे की खीर खिलायी गयी । हमारे मोटे अनाज जिसको आज मिलेट कहा जाता है और जो पूर्णतय आर्गेनिक और फाईबर फूड है तथा जो औषधीय गुण से सम्पूर्ण है और पूरी दुनिया में आज मोटे अनाज अर्थात मिलेट वर्ष के रूप मे खाद्य को स्वीकृत किया गया है। इसका भोजन दिया गया । हमारी पहाडी परम्परा मे “सरूला” अर्थात साफ शुद्ध व्यक्ति ही स्वच्छता और शुद्धता के साथ भोजन बनाता और परोसता था उसी तरह यहा भी ” मालू” के पत्तल पर खाने को परोसा गया। शाम को बरात मे दूल्हे को पालकी में लाया गया पालकी का केवल उपरी भाग ढका रहता है ।बारात में दो ध्वज जिन्हें “निशाण”कहा जाता है बरात के आगे सफेद निशाण तथा बरात के पीछे लाल निशाण चलता है ।पुराने जमाने मे दूर से ही सफेद निशाण या झण्डे को आगे देखकर पता चलता था कि बरात दुल्हन लेने जा रही है । इस बरात मे ढोल दमाऊ मशकबीन के साथ छोलिया दल चलता है। इसके पश्चात विवाह में हमारी पहाड़ी सांस्कृतिक छटा को प्रदर्शित करने के लिए कार्यक्रम किए गए ।

यद्यपि जयमाला पहाड़ी संस्कृति का अंग नहीं थी किंतु समय के साथ इस परंपरा को अंगीकार किया गया और पहली बार जयमाला को पहाड़ी स्वरूप मे प्रदर्शित किया गया। इसमें हमारी बेटी को देवी और देवी को अपनी बेटी माने जाने की हमारी परंपरा को दिखाया गया। नंदा लोक जात अथवा राजजात यात्रा में पहाड़ी समाज नंदा या गौरा देवी को अपनी बेटी की तरह मानते हैं और कैलाश तक उस यात्रा में अपनी बेटी की डोली की तरह सजाते हुए उसकी विदा देते हैं इसी को आधार मानते हुए विवाह में बेटी को देवी का स्वरूप मानते हुए जिस प्रकार से नंदा देवी की डोली को कैलाश तक ले जाकर शिव को समर्पित करते हैं उसी रूप में इस विवाह में बेटी को देवी का स्वरूप मानते हुए तथा दूल्हे को वर नारायण के रूप में मानते हुऐ दोनों देवी और देवताओं के स्वरूप में उनकी जयमाला संपन्न कराई गई।इस जयमाला मे बेटी को रिगांल से बनी छंतोली जिस का प्रयोग नन्दा राजजात मे किया जाता है जो कि चमोली जनपद मे आदिबद्री के पास छिमटा गांव और मे परम्परागत क्राफ्ट से तैयार की गई ,मे दुल्हन को उसी भाव व आस्था के दर्शन के साथ प्रस्तुत किया गया इसके बाद गोत्राचार के समय जब दूल्हा और दुल्हन मिलते हैं उस समय का वर्णन मांगल गीत द्वारा किया जाता है ।तत्पश्चात बेदी या मण्डप मे दुल्हन और दुल्हा सात फेरे लेते हैं उस समय भी पहाड़ी परंपरा के अनुसार मंगल गीत गाकर इनका वर्णन किया गया है सुबह लड़की की विदाई डोली में की गई इस समय बरात की विदाई पर लाल निसाण अर्थात झण्डा आगे तथा सफेद निसाण बरात के पीछे चलता है जिससे दूर से ही प्रदर्शित हो कि बरात अब दुल्हन सहित जा रही है इस प्रकार से पूरे विधि-विधान और पहाड़ी परंपरा के अनुसार विवाह संपन्न कराया गया

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