‘चिपको आंदोलन’ का साक्षी रैणी गांव, आंदोलन की 46वीं वर्षगांठ पर विशेष

March 26, 2019 | samvaad365

चिपको आंदोलन की जननी गौरा देवी

गोपेश्वर जिले के रैणी गांव के लोग जंगल बचाओ अभियान में आज भी जुटे हुए हैं। गांव की महिलाओं और पुरुषों में आज भी जंगल बचाने को लेकर वही जुनून साफ देखा जा सकता है। दरअसल रैणी गांव वही गांव है जहां से चिपको आंदोलन की जननी गौरा देवी ने अपने 21 साथियों के साथ 26 मार्च 1974 को इस आंदोलन की शुरुआत की थी। आज इस आंदोलन की 46वीं वर्षगांठ के मौके पर आइए आपको बताते हैं कि उत्तराखंड के एक छोटे से गांव से शुरु हुआ चिपको आंदोलन कैसे आग की तरह पूरे देश में फैल गया।

कैसे हुई चिपको आंदोलन की शुरुआत

साल 1974 में रैणी गांव के जंगलों के लगभग ढाई हजार पेड़ों की नीलामी हुई। जिसका गौरा देवी ने दूसरी महिलाओं के साथ मिलकर पुरजोर विरोध किया। बावजूद इसके सरकार और ठेकेदार ने अपना निर्णय नहीं बदला। वहीं जब ठेकेदार के मज़दूर पेड़ काटने जंगल पंहुचे तो गौरा देवी और उनके 21 साथियों ने मज़दूरों को समझाने का प्रयास किया। समझाने के बाद भी जब वो पेड़ों को काटने की जिद पर अड़े रहे तो महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर उन्हें ललकारा कि पहले हमें काटो फिर पेड़ो को काटना। जिसके बाद ठेकेदार ने भी हार मान ली और मज़दूरों को जंगल से वापस जाना पड़ा। घटना के बाद इन महिलाओं ने स्थानीय वन विभाग के अधिकारियों के सामने अपना पक्ष रखा। अधिकारियों ने अपील पर गौर किया जिसका नतीजा यह हुआ कि रैणी गांव का जंगल नहीं काटा गया। इस तरह चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई।

पूरे देश में आग की तरह फैला आंदोलन

इस आंदोलन के नेता पर्यावरणविद् सुंदर लाल बहुगुणा और कार्यकर्ता खासतौर पर गांवों की महिलाएं थीं। इस आंदोलन की खासियत शांत अहिंसक विरोध प्रदर्शन से पेडों और जंगलों की रक्षा करनी थी। उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन को साल 1980 में एक बड़ी उपलब्धी उस वक्त हासिल हुई जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रदेश के हिमालयी क्षेत्रों में पेड़ों के कटान पर 15 सालों के लिए रोक लगा दी। धीरे-धीरे यह आंदोलन उत्तर में हिमाचल, दक्षिण में कर्नाटक, पश्चिम में राजस्थान, पूर्व में बिहार और मध्य भारत तक भी फैल गया। जिनमें से कई क्षेत्रों में आंदोलनकारियों का आंदोलन सफल रहा।

आज भी प्रकृति के लिए ‘वही प्यार’ बरकरार

इस आंदोलन में कूद पड़े रैणी गाव के लोग आज भी जंगल की अपने परिवार की तरह ही देखभाल करते हैं। बता दें कि जोशीमठ से करीब 27 किलोमीटर की दूरी पर बसे इस गांव की महिलाएं आज भी जंगलों की देखरेख के लिए हमेशा आगे रहती हैँ।

संवाद365/ पुष्पा पुण्डीर

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