पहाड़ों से पलायन की रोकथाम के लिए कई सालों से जनजागरुकता कार्यक्रम चला रहा है ‘धाद’

January 2, 2019 | samvaad365

उत्तराखंड से लगातार हो रहे पलायन की रोकथाम के लिए राज्य का प्रमुख सामाजिक संगठन धाद पिछले कई सालों से पर्वतीय जिलों में जनजागरूकता कार्यक्रम चला रहा है। इसी कड़ी में पिछले सालों की तरह इस वर्ष भी वर्ष पर्वतीय संस्कृति, पलायन व जनजागरूकता को लेकर एक कैलेंडर का लोकार्पण किया गया। यह कैलेंडर 4 बिन्दुओ पर केन्द्रित है। जिसमें पहला मुद्दा ग्रामोत्सव, दूसरा मुद्दा फूलदेई, तीसरा मुद्दा लोकसृस्कृति और चैथा मुद्दा शिक्षा रखा गया है। इस रिपोर्ट में देखते हैं कि धाद कि इस मुहिम को आम जनता का कितना सहयोग मिल पा रहा है।

उत्तराखंडी समाज सैकड़ों वर्षों के पलायन का दंश झेलता आ रहा है, पलायन आयोग की रिपोर्ट बताती है की 50 प्रतिशत लोगों ने रोजगार के लिए गाँव छोड़ा है।

वर्तमान में खाली हो चुके गांवों की संख्या 1668 हो गयी है। दूसरी और उत्तराखंड में कृषि क्षेत्र के साथ साथ उत्पादन लगातार घट रहा है। जबकि इसका उत्पादक होना एकमात्र समाधान है। रोजगार के समुचित विकल्पों के अभाव में कारण लगभग पूरे पर्वतीय समाज ने पलायन को सामाजिक तौर पर स्वीकार कर लिया है। दूसरी और अपनी आर्थिक क्षमताओं और संसाधनों के प्रति समाज की उदासीनता ने गांवों में अनुत्पादकता और नकारात्मकता के वातावरण को जन्म दिया है। जबकि पहाड़ों की अपनी संसाधानिक और उत्पादन क्षमताये हैं। इसलिए आज पहाड़ का पर्यावरण और वृक्षारोपण से भी कोई महत्वपूर्ण सवाल है तो वह है उत्पादकता।  गाँव को उत्पादक बनाए बिना हम ना इस सवाल का जवाब पा सकते हैं और ना ही अपनी सांस्कृतिक सेवाओं का। हम जिसे सांस्कृतिक असमिता के संकट के रुप में देखते हैं।  उसका कारण आर्थिकी है. समाज को आत्मनिर्भर, समृद्ध और खुशहाल बनाये बिना हम एक मजबूत समाज नहीं बना सकते। ऐसे में हमने ग्रामोत्सव की परिकल्पना की है। समाज के अंतिम आदमी और भूगोल व शासन की अंतिम इकाई गाँव को विकास की बहस के केंद्र में लाना ग्रामोत्सव का मुख्य उद्देश्य है जिसमें प्रवासियों की भूमिका महत्वपूर्ण है। यह उनके गाँव लौटने और अपना अर्जित ज्ञान, रिसोर्सेस,  सेवाएं और भागीदारी गाँव को देने का  उत्सव है। पहाडों को पहला संसाधन भूमि है और आजीविका का मुख्य आधार कृषि और उससे जुड़े कार्य।

पलायन के कारण उत्तराखंड के पारपंरिक त्यौळार अब केवल न के बराबर देखने को मिलते हैं। फूलदेई जो कि धरती की एक सुंदरतम , श्रेष्ठ और लोककल्पना का उदाहरण है। यह बसंत के आगमन का पर्व है। इसकी विशेषता है कि यह बाल उल्लास  और उनकी रचनात्मकता का अद्भुत आयोजन है। उत्तराखंड के लोकसंस्कृति के सवालों को लेकर है, इस धरती पर कई खूबसूरत त्योहारों की परिकल्पना, रचना तथा जन्म हुआ है. ये पर्व प्रकृति , पर्यावरण, लोक समृद्धि तथा खुशहाली से जुड़े है,  हरेला इनमे से एक है। हम इसे खोते जा रहे है। जबकि इसका स्वरुप वैश्विक है। एक सुन्दरतम श्रेष्ठ और अद्भुत लोक कल्पना का उदाहरण है।  सच्चे अर्थो में यह एक प्रकृति पर्व है। आधुनिक सन्दर्भ में इसे हरियाली पर्व भी कह सकते हैं। पलायन की एक बड़ी वजह पर्वतीय क्षेत्रों में शिक्षा भी है।  धाद ने अपने जागरूकता अभियान में इस बात को भी शामिल किया है। बच्चे ना केवल समाज की साझा संपत्ति है बल्कि वे बुनियादी ह्यूमन मटेरियल भी है। उनका सही विकास एक सही समाज और देश का विकास है। छात्र का विकास किसी क्षेत्र का  विकास भी है। ज्ञान मनुष्य को बड़ा, बेहतर और मानवीय बनाता है । अतः एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए धाद इस प्राथमिक बुनियादी ह्यूमन मटेरियल को बेहतर मानव बनाने के लिए प्राथमिक शिक्षा के लिए समाज के सहयोग से  कक्षा कोना के कोंसप्ट पर काम कर रही है। धाद संस्था के सचिव तन्मय मंमगाई कहते हैं कि हम सबको पलायन रोकने को लेकर सरकार  के साथ मिलकर काम करना होगा।

पलायन को लेकर जागरूक करता धाद का यह कैलेंडर एक बेहतर समाज के निर्माण , बालसिक्षा , उत्पादकता और इसधरती की सुन्दर , श्रेष्ठ और अद्भुत सांस्कृतिक परिकल्पनाओं को समर्पित है। पलायन से खाली होते गांवों को अगर दुबारा बसाना है तो हम सबको मिलकर इस ओर पहल करनी होगी,तभी जाकर  रिर्वस पलायन संभव हो पायेेगा।

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देहरादून/संध्या सेमवाल

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