उत्तराखंड के लोकपर्व और त्यौहार अपना अलग महत्व रखते हैं, इस बात में कोई शक नहीं है कि प्रकृति का जिना आशीर्वाद उत्तराखंड पर है उसका आभार अम अपने पर्वों और त्यौहारों में करते हैं. प्रकृति का आभार प्रकट करने का ही पर्व है फूलदेई….
चैत महीने की संक्रांति से ये पर्व मनाया जाता है. यह पर्व छोटे छोटे बच्चों का पर्व है जो फूल लेकर घर घर जाते हैं डेहलियों पर फूलों को सजाते हैं. सर्दियां बीत जाने के बाद पहाड़ों में फ्यौंली बुरांस के फूल खिलते हैं और इन्हीं फूलों से इस त्यौहार को मनाया जाता है.
फूल घरों की देहरी पर डालकर बदले में दाल चावल मांग कर घेघ्या देव के जयकारे लगाकर फूलदेई छम्मा देई के गीत गाकर इस त्यौहार को मनाया जाता है.पहाड़ों के गांवों में एक बार फिर से बच्चों की टोलियां निकल पड़ी हैं इस त्यौहार को मनाने को. सीधे सरल शब्दों में ये त्यौहार मानव व प्रकृति के पारस्परिक संबंधों का ऋतु पर्व है.
क्या है फं्योली की कहानी
मान्यता है कि फ्यूंली वनकन्या थी. फ्यूली जंगल में रहती थी जंगल के पेड़ पौधे और जानवर ही उसका परिवार भी थे और दोस्त भी. फ्यूंली की वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली थी. एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। फ्यूंली को राजकुमार से प्रेम हो गया। राजकुमार के कहने पर फ्यूंली ने उससे शादी कर ली और पहाड़ों को छोड़कर उसके साथ महल चली गई।
फ्यूंली के जाते ही पेड़.पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगीं और पहाड़ बरबाद होने लगे. उधर महल में फ्यूंली ख़ुद बहुत बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था. और एक दिन फ्यूंली मर गई। मरते.मरते उसने राजकुमार से गुज़ारिश की कि उसका शव पहाड़ में ही कहीं दफना दे। फ्यूंली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर दफनाया जहां से वो उसे लेकर आया था। जिस जगह पर फ्यूंली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक फूल खिला, जिसे फ्यूंली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई.
(संवाद 365/ब्यूरो)
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