राज्य गठन के बाद से उत्तराखंड में सबसे ज्यादा क्या बढ़ा? उत्तर होगा- जनसंख्या, असमानता, पलायन और आपदाएं। अनुमान है कि पिछले दो दशकों में देश में 36 प्रतिशत और उत्तराखंड में 50 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या बढ़ी। 2021 में जनगणना नहीं हुई, लेकिन अनुमान है कि पिछले दो दशक में उत्तराखंड में औसत हर वर्ष दो लाख लोगों की बढ़ोतरी हुई।
चुनाव आयोग के अनुसार वर्ष 2002 से 2012 के बीच उत्तराखंड में मतदाताओं की संख्या 21 प्रतिशत और 2012 से 2022 के बीच 30 प्रतिशत बढ़ी। एमडीडीए के मास्टर प्लान 2041 प्रारूप में 2041 तक देहरादून की जनसंख्या दोगुनी होकर 24 लाख तक पहुंचने का अनुमान है।
बढ़ती जनसंख्या के बीच राज्य की कैरिंग कैपेसिटी (धारण क्षमता) एक बड़ी चिंता है। राज्य में संसाधन सीमित हैं। इस तरह जनसंख्या और दबाव बढ़ते रहे तो साधन संपन्न लोग संसाधनों पर और कब्जा करेंगे और बेरोजगार, गरीब-गुरबे पीछे रह जाएंगे। इसके आने वाले समय में विस्फोटक परिणाम होंगे। इस समस्या पर गंभीरता नहीं दिखी, जबकि यह सरकार की शीर्ष प्राथमिकता होनी चाहिए।
हर वर्ष पहले से 33 हजार ज्यादा लोग पलायन करने लगे
पलायन आयोग के अनुसार 2008 से 2018 तक राज्य में प्रतिवर्ष 50,272 लोगों ने और 2018 से 2022 के बीच प्रतिवर्ष 83,960 लोगों ने पलायन किया। यानी हर वर्ष पहले से 33 हजार ज्यादा लोग पलायन करने लगे। ये सिर्फ आंकड़े नहीं, पर्वतीय राज्य की उस मूल अवधारणा पर ही प्रहार है, जिस कारण राज्य गठन हुआ।
इस वर्ष आपदाओं से हिमाचल प्रदेश को 12 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। जो चारधाम सड़क परियोजना की लागत के बराबर। सुरक्षित हम भी नहीं हैं, लेकिन क्या हम ईमानदारी से क्लाइमेट फ्रेंडली योजनाएं बनाने का काम कर रहे हैं। हमारी सरकार और समाज क्या इन परिस्थितियों को आत्मसात करके योजनाओं के खतरों को लेकर पर्याप्त तौर से सतर्क है?
इसमें कहीं संदेह नहीं कि कई लोगों की जिंदगी बेहतर हुई है। लेकिन बड़ी चुनौतियां मुहं बाएं खड़ी हैं। जनसंख्या, असमानता, पलायन और आपदाओं के मध्य उत्तराखंड को पीछे छूट चुके लाखों लोगों को साथ लेकर चलने की जरूरत है। राज्य गठन में सब कुछ न्योछावर करने वाले शहीदों को संतुलित और सतत विकास ही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।