कारगिल युद्ध को आज 24 साल पूरे, उत्तराखंड के सपूतों के बिना अधूरी है कारगिल की वीरगाथा

July 26, 2023 | samvaad365

आज से ठीक 24 साल पहले भारत के रणबाकुंरों ने वीरता और शौर्य की ऐसी गाथा लिखी जिसे देश कभी भी भूला नहीं सकेगा। भारतीय सेना के अदम्य साहस की कहानी है ‘कारगिल युद्ध’। 3 मई सन् 1999 को जब एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाकिस्तान सेना के घुसपैठ कर कब्जा करने की सूचना दी। जिसके बाद भारतीय सेना की पेट्रोलिंग टीम जानकारी लेने कारगिल पहुँची तो पाकिस्तानी सेना ने उन्हें पकड़ लिया और उनमें से 5 सैनिकों की हत्या कर दी। जिसके बाद कारगिल युद्ध की शुरूआत हुई। जिसे ऑपरेशन विजय के नाम से भी जाना जाता है। ये वो युद्ध था जिसने भारत और पाकिस्‍तान के बीच के रिश्‍तों को वो मोड़ दिया था जिसके बारे में कभी किसी ने सोचा नहीं होगा। 18,000 फीट की ऊंचाई पर बैठे दुश्मन के नापाक इरादों को नाकाम कर कारगिल से बाहर खदेड़ना भारतीय सेना के लिए कोई आसान लक्ष्‍य नहीं था। कारगिल का यह युद्ध तकरीबन दो महिने चला। जिसमें लगभग 527 रणबाकुंरों ने मां भारती के लिए अपना सवोच्छ बलिदान दिया। 1300 से ज्यादा सैनिक इस जंग में घायल हुए। वहीं पाकिस्तान ने इस जंग में लगभग 1000 से 1200 सैनिक खोए। भारत और पाकिस्तान के बीच ये वो संघर्ष था जिसने दुनिया को भारतीय सेना के सामने नतमस्‍तक होने पर मजबूर कर दिया था।

1999 का कारगिल युद्ध वो घटना थी जिसमें पाकिस्‍तान ने भारत की पीठ पर छुरा भोंका था। लाहौर घोषणा पत्र के बाद भी पाकिस्‍तान ने वो किया था जिसकी उम्‍मीद भारत में किसी को नहीं थी। क्योंकि कारगिल की घटना अचानक हुई थी और किसी को भी ऐसे युद्ध की उम्मीद नहीं थी न ही कोई इस युद्ध के लिए तैयार था। कारगिल में 18,000 फीट की ऊंचाई पर बैठा दुश्मन भारतीय सेना की हर हरकत पर नजर रख सकता था। दिन में दुश्‍मन सेना की हर गतिविधि को देखता था। जब सेना को पाकिस्तान के घुसपैठ की खबर मिली तो तुरंत ही घुसपैठियों को भगाने की रणनीति तैयार की गयी। लेकिन 18 हजार फीट की ऊँचाई पर चढ़कर दुश्मन को खदेडना कोई आसान बात नहीं थी। उस समय द्रास सेक्टर में रात को तापमान इतना नीचे तक पहुंच जाता था कि खून भी जम जाए। लेकिन बावजूद इसके सेना ने रात में द्रास चोटी पर चढ़ाई करने और दिन में युद्ध लड़ने का फैसला लिया। वहीं वायुसेना पूरी सक्रियता के साथ इस युद्ध में शामिल नहीं थी। ऐसे में सेना की मुश्किलें बहुत ज्‍यादा थी। लेकिन इसके बाद भी सेना ने बहादुरी से दुश्‍मन का सामना किया।

कारगिल में दुश्‍मन जिस ऊंचाई पर था वहां से वो लगातार नेशनल हाइवे 1 को निशाना बना रहा था जो द्रास को जम्‍मू कश्‍मीर और पूरे देश से जोड़ता था। इस हाइवे पर हमला यानी युद्ध में जीत का तय होना। वहीं भारतीय सेना के लिए तोलोलिंग पर कब्जा करना आसान नहीं था और कब्जा किए बिना दुश्मन को पीछे धकेलना लगभग न मुम्किन। एक-एक ऑफिसर और एक-एक जवान ने इस युद्ध में अपनी जी जान लगा दी। और तोलोलिंग, टाइगर हिल के साथ बटालिक सेक्‍टर की अहम चोटियों से पाकिस्‍तानी घुसपैठियों को खदेड़ दिया। ये भारतीय सेना के लिए वरदान साबित हुआ था। यहां से स्थितियां भारत के पक्ष में आईं और फिर पाकिस्‍तान हार की तरफ बढ़ता गया था। भारतीय सेना ने अदम्य साहस से जिस तरह कारगिल युद्ध में दुश्मन को खदेड़ा, उस पर हर देशवासी को गर्व है। यह सैन्य ऑपरेशन 26 जुलाई 1999 को समाप्त हुआ था।

आज देश कारगिल युद्ध की 24 वीं वर्षगांठ मना रहा है। ऐसे में कारगिल युद्ध की वीरगाथा उत्तराखंड की इस वीरभूमि के जवानों के जिक्र के बिना अधूरी है। इस कारगिल युद्ध में देवभूमि के 75 सैनिकों ने देश रक्षा में अपने प्राण न्योछावर किए। एक छोटे से राज्य के लिए यह बहुत गौरान्वित करने वाली बात है। शहादत का यह जज्बा आज भी पहाड़ नहीं भूला है। कारगिल आपरेशन में गढ़वाल राइफल्स के 47 जवान शहीद हुए थे, जिनमें 41 जांबाज उत्तराखंड मूल के ही थे। वहीं कुमाऊं रेजीमेंट के भी 16 जांबाज भी शहीद हुए थे। जवानों ने कारगिल, द्रास, मशकोह, बटालिक जैसी दुर्गम घाटी में दुश्मन से जमकर लोहा लिया। शहीद हुए जवानों में से  37 जवानों को युद्ध के बाद उनके शौर्य के लिए सम्मान मिला। उत्तराखंड के बारे में कहा जाता है कि यहां हर घर से नौजवान जांबाज सेना में हैं। शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देवभूमि को सैन्य धाम की संज्ञा दी है।

 

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