वीर चंद्र सिंह भंडारी ‘गढ़वाली’ की वो शौर्यगाथा जो हर देशवासी को सुननी चाहिए, आज है उनकी 129वीं जयंती

December 25, 2020 | samvaad365

पेशावर विद्रोह के महानायक वीर चंद्र सिंह भंडारी जिनहें लोग वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम से जानते हैं भारत के उन महान वीर सपूतों में से एक हैं जिनहोंने अपनी वीरत, साहस, अटूट देशप्रेमी और  संघर्षशील व्यक्तित्व से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अपना नाम अंकित कराया है. आज उनकी 129वीं जयंती है.

गढ़वाल के चौथान पट्टी के माँसी सैणीसेरा गांव में 25 दिसंबर 1891 को जन्में वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की शौर्यगाधा रोमांचित करने वाली है. 23 अप्रैल 1930 को हवलदार मेजर चंद्र सिंह भंडारी यानी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में किस्साखानी बाजार मैं  लालकुर्ती खुदाई खिदमदगारों की एक आम सभा में अंग्रेज अफसरों रिकेट ने गोली चलाने का हुक्म दिया. चन्द्र सिंह गढ़वाली कैप्टेन रिकेट की बगल में ही खड़े थे और उनहोंने तत्काल ‘सीज ‘फायर’ का हुक्म दिया और सैनिकों ने अपनी बन्दूकें नीचे करने को कहा. इतना करने के बाद वीर चन्द्र सिंह ने अंग्रेज अफसर से कहा की “हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते।” हालांकी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के विद्रोह के बाद अंग्रेजी हुकुमत ने अंग्रेजो की फौजी टुकड़ी से ही गोली चलवाई. लेकिन वीर चन्द्र सिंह का और गढ़वाली पल्टन के उन जांबाजों का यह अदभुत और असाधरण साहस था जो ब्रिटिश हुकूमत की खुली अवहैलना और विद्रोह था.

इस विद्रोह के बाद अंग्रेजी  हुकुमत ने इसे राजद्रोह करार  देते हुए पूरी बटालियन को नजरबन्द करते हुए कठोर कारावास की सजा सुनाई. वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को मृत्यु दण्ड की जगह आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई.  औप उनहें तत्काल ऐबटाबाद जेल भेज दिए गया.

वीर चंद्र सिंह भंडारी की इस वीरता के बाद महात्मा गांधी ने ही उनहें गढ़वाली की उपाधी दी.

अंग्रेजी हुकुमत में कारावास के दौरान  लखनऊ जेल मैं वो नेताजी सुआष चन्द्र बोस से भी मिले. गढ़वाली एक निर्भीक देशभक्त थे वे बेड़ियों को ‘मर्दों का जेवर’ कहते थे. 26 सितंबर 1941 को वो 11 साल 3 महीने और 18 दिन की कैद के बाद जेल से रिहा हुए और कुछ समय ‘आनन्द भवन’ इलाहाबाद मैं रहने के बाद 1942 में अपने बच्चों के साथ वर्धा आश्रम में रहे। भारत छोड़ो आन्दोलन मैं युवाओं ने इलाहाबाद मैं उन्हें अपना कमाण्डर-इन-चीफ भी नियुक्त किया था. इसी दौरान 6 अक्टूबर, 1942 को अंग्रेजी हुकुमत ने उन्हें फिर सात साल के लिए जेल में डाल दिया.

देवभूमी और पूरे देश के गौरव वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने आखिर कार लंबी बीमारी के बाद वृद्धावस्था में इस दुनिया में अंतिम सांस ली. 1 अक्टूबर 1979 को 87 साल की उम्र में गढ़वाली ने दिल्ली के अस्पताल में इलाज के दौरान सब को अलविदा कह गए औऱ पीछे छोड़ गए अपनी वो शौर्य गाथाएं जिनहें सुनकर आज भी हर भारतीय खुद को गौर्वानवित महसूस करता है. उनके अंतिम संस्कार के दौरान  भरतनगर योजना नामक पुस्तक का गढ़वाली की इच्छानुसार हमवती नंनदन बहुगुणा ने दिल्‍ली के शमशान घाट मैं विमोचन किया और पुस्तक को गढ़वाली की छाती में रखकर उनका दाह संस्कार किया.

आज उत्तराखंड सरकार में उनके नाम से कई योजनाएं और एक युनिवर्सिटी चल रही हैं. गढ़वाली उत्तराखंड की गौरव थे हैं औऱ हमेशा रहेंगे.

(संवाद365/विकेश)

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