हाईलाइट्स
सभी हाईकोर्ट के सोशल मीडिया संबंधी मामले सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर
सोशल मीडिया अकाउंट से आधार जोड़ने पर किया जाएगा विचार
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिया है अपना जवाब
सोशल मीडिया पर फेक न्यूज के ट्रेंड को लेकर सुप्रीम कोर्ट गंभीर
सूचनाएं आपके लिए या किसी भी देश के लिए बेहद जरूरी हैं. सूचना क्रांति के इस दौर का सबसे बड़ा सारथी इंटरनेट ही है. इंटरनेट के मामले में हमारे देश ने या फिर कहा जाए कि दुनिया ने भी पिछले एक दशक में काफी ज्यादा तरक्की की है, लेकिन ऐसा भी लगता है कि यदि किसी चीज की अति हो जाए तो वो भी दुखदायी हो सकता है. ‘दुखदायी से आशय आपको, समाज को और दे श को नुकसान पहुंचने या फिर सौहार्द बिगड़ने से है’. अधिकतम लोग सोशल मीडिया से जुड़े हैं, अधिकतम लोग इंटरनेट के उपभोक्ता है, इंटरनेट की क्रांति तो तेजी से बढ़ गई लेकिन इस क्रांति की जागरूकता परख शिक्षा नहीं बढ़ पाई. वर्तमान दौर में ‘फेक न्यूज, प्रोपोगेंडा, फिक्स एजेंडा’ जैसे शब्द आप कई बार सुन रहे होंगें. अक्सर हर मंच पर इनपर चर्चाएं की जाती हैं.
इंटरनेट का उपयोग दायरे में किया जाए, सोच समझकर किया जाए तो यह निश्चित रूप से एक ज्ञानवर्धक है और आधुनिक विश्व का सबसे प्रभावशाली माध्यम है, लेकिन तब क्या होगा जब इसी इंटरनेट के किसी एक प्लेटफाॅर्म पर, मसलन फेसबुक या व्हाट्सएप्प पर आपके लिए एक जानकारी आए जो कि गलत हो और आप या आपका समाज उस जानकारी से प्रभावित हो जाए, या फिर किसी समाज का सौहार्द बिगाड़ने वाली कोई जानकारी या खबर आ जाए. ऐसा हो भी रहा है एक दो नहीं बल्कि कई ऐसे केस देश में सामने आ चुके हैं जो बताते हैं कि सोशल मीडिया पर लगाम लगाना या फिर इंटरनेट पर लगाम लगाना आज जरूरी हो गया है. लेकिन लगाम कैसी वाली लगेगी ? और इसका आधार क्या होगा ?
केरल हाईकोर्ट का फैसला
केरल हाईकोर्ट ने इंटरनेट के यूज पर अपना एक फैसला सुनाया था. यह मामला ‘फाहीमा शरीन वर्सेज स्टेट केरल’ का था. जिसमें नियमानुसार 10 बजे के बाद इंटरनेट का इस्तेमाल करने पर छात्रा फाहीमा शरीन को बाहर निकाल दिया गया. इस मामले पर अपील की गई अपील में यह दलील दी गई कि यह छात्रा के मौलिक अधिकारों का हनन है, बकायदा इसके लिए दलील में कहा गया कि इंटरनेट का इस्तेमाल हम पढ़ने के लिए करते हैं और यह हमारा अधिकार है, साथ ही इसकी दलील में राइट टू स्पीच और गरिमामय जीवन जीने की दलील भी दी गई इन्हीं के दम पर कहा गया कि इंटरनेट हमारा मौलिक अधिकार है. केरल हाईकोर्ट ने फैसला फाहीमा शरीन के पक्ष में सुनाया. लेकिन यह कोई अंतिम फैसला नहीं है सरकार चाहे तो इसपर सुप्रीम कोर्ट में जा सकती है क्योंकि सरकार की भी अपनी मजबूत दलीलें हैं.
जम्मू-कश्मीर का उदाहरण
यघपि केरल हाईकोर्ट ने इंटरनेट के अधिकार को लेकर फैसला सुनाया हो और उस आधार पर कुछ लोग यह कह सकतें हैं कि जम्मू-कश्मीर विषय में क्या भिन्नताएं हैं ? इसमे कोई भी संशय नहीं होना चाहिए कि जम्मू कश्मीर संवेदनशील क्षेत्र है, देश की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है. और जो संविधान का अनुच्छेद आपको अभिव्यक्ति की आजादी देता है. उसी का दूसरा क्लाज यह भी कहता है कि अभिव्यक्ति की आजादी का आशय इस बात से नहीं है कि देश की अखंडता खतरे में हो, कानून व्यवस्था प्रभावित हो, या फिर सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट की अवमानना हो. इंटरनेट का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर को प्रभावित कर सकता है. जैसा कि हुआ भी है पहले.
जम्मू-कश्मीर और केरल का उदाहरण यह बताया है कि इंटरनेट इस्तेमाल करने का तरीका क्या है ? उसकी संभावनाएं क्या हैं ? अब अक्सर ही आपके मोबाईल पर किसी न किसी प्लेटफाॅर्म पर कई गलत जानकारियां आती होंगी. कई बार उन्हें शेयर किया जाता है. कई बार उनसे चीजें प्रभावित होती हैं. इसी संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से भी पूछा था कि आप इसपर क्या कर रहे हैं. सरकार ने भी कोर्ट से कहा था कि इसके लिए जरूरी चीजों को देखा रहा है.
आधार से निकलेगा सार!
अब सबसे महत्वपूर्ण बात यह आती है कि आखिर ऐसी स्थिति में क्या किया जाए. इसके लिए इस बात पर भी कुछ लोग जोर देते हैं, कि क्या सोशल मीडिया एकाउंट्स को आधार से जोड़ा जाना चाहिए. इस बात पर भी एक लंबी बहस है देश के कई हाईकोर्ट में ऐसे मामले लंबित पड़े हुए हैं, इन मामलों को अब सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया है. यानि कि अब सुप्रीम कोर्ट इन मामलों पर सुनवाई करेगा. भारत सरकार ने अपने जवाब में ये भी कहा कि सरकार सोशल मीडिया के लिए नियमावली पर विचार कर रही है. लेकिन यह किस प्रकार की होगी यह कहना अभी कठिन है. यानी कि हो सकता है कि आपके सोशल मीडिया एकाउंट की चौकीदारी की जाए. लेकिन इससे सिर्फ यही निष्कर्ष निकालना भी गलत होगा कि सरकार आपके निजि जीवन में दखल दे रही है. या फिर आपकी निजता का उल्लंघन कर रही है. बल्कि आज के समय में सत्य यह भी है, कि सोशल मीडिया का चलन और इस्तेमाल दूसरी दिशा में ज्यादा जाने लगा है और इस दिशा में जाने से रोकने के लिए कंपनियों के पास भी कोई कारगर कदम नहीं हैं.
फेक न्यूज पर कंपिनियों का कहना है कि ऐसे संदेश जो भावनाओं को भड़काते हैं उनके स्रोत की जानकारी देना यूजर्स की निजता का उल्लंघन है, नियम के मुताबिक उपभोक्ता इसके लिए बाध्य नहीं है, लेकिन सरकार का कहना है कि इस तरह के मामलों से राष्ट्रविरोधी गतिविधियां काफी ज्यादा बढ़ी हैं. यह अब लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करने वाले टूल के रूप में उभरा है. यानी कि इतना कहा जा सकता है कि भले ही कंपनियों के पास खुद कोई जवाब न हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट मामले पर गंभीर है और सरकार का रूख भी सख्त ही नजर आता है.
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