नवरात्रि स्पेशल : घनसाली में स्थित पौराणिक शक्तिपीठ राजराजेश्वरी माता का दरबार आज भी सड़क और पानी से वंचित

October 13, 2021 | samvaad365

उत्तराखंड की पावन भूमि पर ढेर सारे पावन मंदिर और स्थल हैं जहां पहुंचते ही असीम शांति का अनुभव होता है।  मां राजराजेश्वरी का पौराणिक शक्तिपीठ उन्हीं मंदिरों में से एक है ।  माँ राजराजेश्वरी का मंदिर बालखिल्य पर्वत की सीमा में मणि द्वीप आश्रम में स्थित है जो कि बासर,  केमर, भिलंग एवं गोनगढ़ के केन्द्रस्थल में चमियाला से  15 कि. मि. और मांदरा से 2 कि. मि. दूरी पर रमणीक पर्वत पर स्थित है। मंदिर के मुख्य पुजारी (रावल) देवेश्वर प्रसाद नौटियाल ने बताया कि  माँ राज राजेश्वरी के बारे में आख्यान मिलता है कि देवासुर संग्राम के समय आकाश मार्ग से गमन करते समय माँ दुर्गा का खड्ग  ( अज्ञात धातु से बना एक “शक्ति शस्त्र” तलवार जैसा हथियार) चुलागढ की पहाड़ी  पर गिरा था । भारतीय पुरातत्व विभाग के अनुसार यह ‘शक्ति शस्त्र’ लाखों वर्ष पुराना है जो कि मंदिर के गर्भगृह में विद्यमान है।

 

माँ राज राजेश्वरी  दस “महाविद्या” में से एक ‘त्रिपुर सुंदरी’ का स्वरूप हैं। माता राज राजेश्वरी टिहरी रियासत के राज वंश  द्वारा पूजी जाती थी । कनक वंश  के राजा सत्यसिंध (छत्रपति)ने 14 वीं शताब्दी में मां राजराजेश्वरी मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था।स्कंदपुराण में यह उल्लेख मिलता है कि एक बार जब पृथ्वी पर अवश्रण हुआ तो ब्रह्मा जी ने इसी देव भूमि में आकर माँ राज राजेश्वरी का स्तवन किया। स्कन्दपुराण में निम्न उल्लेख है:-
शिवां सरस्वती लक्ष्मी, सिद्धि बुद्धि महोत्सवा।
केदारवास सुंभंगा बद्रीवास सुप्रियम।।
राज राजेश्वरी देवी सृष्टि संहार कारिणीम ।
माया मायास्थितां वामा, वाम शक्ति मनोहराम।।
(स्कन्दपुराण, केदारखण्ड अध्याय 110)

राजा सत्यसिन्ध (छत्रपति ) की राजधानी छतियारा  थी जो कि चूलागढ़ से मात्र 6 कि.मि. पर स्थित है। राजा सत्यसिन्ध ने चूलागढ़ में माँ राज राजेश्वरी की उपासना की जिसकी राजधानी के ध्वंसावशेष आज भी छतियारा के नजदीक देखने को मिलते हैं। पंवार वंशीय शासक अजयपाल का यहां गढ़ होने का प्रमाण मिलता है। चूलागढ़ पर्वत से खैट पर्वत, यज्ञकुट पर्वत, भैरवचटी पर्वत, , हटकुणी तथा भृगु पर्वत का निकटता से दृष्यावलोकन किया जा सकता है। माँ राज राजेश्वरी मंदिर से थोड़ी दूरी पर “गज का चबूतरा” नामक स्थल है जहां पर राजा की कचहरी लगती थी। इसके नजदीक ही राजमहल और सामंतों के निवास थे। जिनके ध्वंशावशेष यहां  विखरे पड़े हैं। गढ़पति  ने पानी की व्यवस्था एवं सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मंदिर से दो किलोमीटर लंबी सुरंग जमीन के अंदर खुदवाई थी जो मंदिर के नीचे वहने वाली बालगंगा तक जाती थी। इसमे जगह जगह पत्थर के दीपक विद्यमान थे जिनसे रोशनी की जाती थी। सुरंग में जाने के लिए पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई थी। अभी यह सुरंग बंद पड़ी हुई है।

मंदिर में पूजा दो रावल (पुजारी) द्वारा की जा रही है, जो गांव “मान्द्रा” के नौटियाल वंशीय परिवारों के हैं। रावल की सहायता के लिए महाराजा टिहरी ने केपार्स एवं गडारा के चौहान  परिवारों को गजवाण गांव में जमीन गूंठ में दान दी हुई है।जो कि भगवती के नाम से आज भी विद्यमान है। मंदिर में नवरात्रों में सेवा कार्य केपार्स और गडारा गांवों के ‘चौहान’ परिवारों द्वारा किया जाता  है।मंदिर में नवरात्रि, पूजन एवं जात के दौरान छतियारा के ‘गड़वे’ (माता के दास) द्वारा ढोल, दमांऊ बजाया जाता है। इन्हें भी महाराजा द्वारा भरण पोषण हेतु जमीन दान दी हुई है। वहीं प्रत्येक नवरात्र में मंदिर से टिहरी नरेश के लिए हरियाली भी भेजी जाती थी।

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प्रसिद्ध मंदिर होने के कारण आज भी मंदिर तक सड़क का निर्माण नहीं किया गया है । स्थानीय जनप्रतिनिधियों और आम जनता का कहना है कि प्रदेश सरकार और पर्यटन विभाग इस मंदिर की अनदेखी कर रहा है। पुजारी ने भी सरकार से मंदिर तक सड़क निर्माण और सुुरंग खुलवाने की मांग की है । वहीं स्थानीय लोगों ने मंदिर तक सड़क निर्माण और मंदिर से बालगंगा नदी तक जो सुरंग थी इसे खोलेने की भी मांग की है उनका कहना है कि सुरंग खुलने से श्रद्धालुओं और पर्यटकों की संख्या में इजाफा होगा,  स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा और क्षेत्र से बढ रहे पलायन पर अंकुश लगेगा ।

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 संवाद365, पंकज भट्ट 

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