पिथौरागढ़ : आस्था और मनोरंजन का पर्व हिलजात्रा की रही धूम , बैल, हिरन, चीतल, लखिया भूत जैसे दर्जनों पात्र मुखौटों के साथ उतरे मैदान में

September 4, 2021 | samvaad365

उत्तराखण्ड का पहाड़ी समाज प्राचीन काल से ही कृषि पर आधारित समाज है। यही वजह है कि यहां के अधिकांश लोकपर्व भी कृषि पर ही आधारित है। आज भी इन पर्वों के प्रति शहरी हो या ग्रामीण किसी का भी लगाव कम नही हुआ है। आस्था और मनोरंजन को खुद में समेटा ऐसा ही एक पर्व है सोर घाटी पिथौरागढ़ का ऐतिहासिक हिलजात्रा पर्व, जिसे मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। इस पर्व का मुख्य आर्कषण चेहरों पर लगे मुखौटे होते हैं । सातूं आठूं से शुरू होने वाले इस पर्व का समापन पिथौरागढ़ में हिलजात्रा के रूप में होता है। ये पर्व पूरे भारतवर्ष में केवल पिथौरागढ़ के सोर, अस्कोट और सीरा परगने में मनाया जाता है। जिसकी रौनक देखते ही बनती है।

इस हिलजात्रा की असल शुरूआत पिथौरागढ़ जिले के कुमौड़ गांव से हुई है। कहा जाता है कि इस गांव के चार महर भाई नेपाल में हर साल आयोजित होने वाली इन्द्रजात्रा में शामिल होने गये थे। महर भाईयों की बहादुरी से खुस होकर नेपाल नरेश ने यश और समृद्धि के प्रतीक ये मुखौटे इनाम में दिये थे। तभी से नेपाल की ही तर्ज पर ये पर्व सोरघाटी पिथौरागढ़ में भी हिलजात्रा बढ़ी धूमधाम से मनाया जाता रहा है।इस पर्व में बैल, हिरन, चीतल, लखिया भूत जैसे दर्जनों पात्र मुखौटों के साथ मैदान में उतरकर जहां दर्शकों को रोमांचित करते है वही पहाड़ के कृषि प्रेम को भी दर्शाते है।हिलजात्रा के मुख्य पात्र लाखिया भूत को भगवान शिव के प्रमुख गण वीरभद्र का अवतार माना जाता है। वीरभद्र भगवान शिव की जटा से प्रकट हुआ था. भगवान शंकर की जटा से उत्पन्न होने के कारण वीरभद्र के स्वरुप लखिया भूत को बेहद गुस्सेल स्वभाव का माना जाता है। यही कारण है कि मैदान में आते समय लखिया को लोहे की चैन से जकड़ा जाता है।

हिलजात्रा पर्व का आगाज भले ही महर भाईयों की वीरता से हुआ हो लेकिन वक्त के साथ साथ इसे कृषि पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। धान रोपती महिलाए और बैलों को हांकता हलिया पहाड़ के कृषि जीवन को दर्शाते है। तेजी से बदलते इस दौर में जहां लोग अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर होते जा रहे है। वही सोर घाटी के लोगों का अपनी संस्कृति के प्रति लगाव अनूठा उदाहरण पेश कर रहा है।

संवाद365, मनोज चंद

 

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