चमोली: समय के साथ-साथ पहचान खो रहा है बैसाखी का बिखौती मेला

April 15, 2019 | samvaad365

भारत वर्ष मेले एवं सांस्कृतिक आयोजनों का देश रहा है। मेले किसी भी समाज के न सिर्फ लोगों के मिलन के अवसर होते है वरन रोजमर्रा की आवश्यकताओ की पूर्ति के स्थल व विचारो और रचनाओ के भी साम्य स्थल भी होते है। पर्वतीय समाज के मेलो का स्वरुप भी अपने आप में एक आर्कषण का केन्द्र है। उत्तराखण्ड में मेले संस्कृति व विचारो के मिलन का स्थल रहा है। यहां के प्रसिद्ध मेलों में एक पौराणिक मेला है बैसाखी मेला।  जो कि अब धीरे-धीरे अपनी पहचान खोता जा रहा है। बैसाखी के दिन हर वर्ष लगने वाले इस मेले में बाजार सूने दिखे ।

यूं तो उत्तराखण्ड के विभिन्न जगहों पर हर वर्ष मेले का आयोजन होता है। लेकिन हर वर्ष बैशाखी पर्व पर चमोली जिले के कर्णप्रयाग में लगने वाले बिखौती मेले का एक पौराणिक महत्व रहा है। स्थानीयों का कहना है कि पौराणिक समय में बैसाखी के दिन लोग दूर दूर से इस बिखौती के मेले में आकर सर्वप्रथम सुबह चार बजे कर्णप्रयाग में अलकनंदा और पिण्डर नदी के संगम पर चार बजे से स्नान कर विश्व प्रसिद्ध उमा देवी के मन्दिर में रात भर झुमेंलो चैंपला खेलते थे और सुबह उमा देवी मन्दिर में पूजा पाठ कर कर्णप्रयाग के बाजार में इस दिन भव्य मेले का आयोजन हुआ करता था। सालों से ध्याणियां व मां बेटियां दूर दूर से आकर कर्णप्रयाग के इस बिखौती मेले में मिलती थी, और जरुरत की चीजों की खरीदारी किया करती थी। जिसके बाद धीरे-धीरे यह मेला पूरे उत्तराखण्ड में अपनी विशेष पहचान बनाने लगा, लेकिन वर्तमान आधुनिकता के दौर में पलायन से खाली होते पहाडी क्षेत्रों में लगने वाला कर्णप्रयाग का यह पौराणिक बिखौती मेला अपनी पहचान खोता जा रहा है। आज बिखौती मेले के अवसर पर यहां बाजार सूने दिखे और कर्णप्रयाग के संगम का स्नान जो कभी अपने महत्व के लिए जाना जाता था वहां आज कोई एक भी व्यक्ति स्नान करते नहीं दिखा। जबकि आज सरकार द्वारा करोडों खर्च कर संगम घाटों को भव्य भी बना दिया गया है।  बावजूद इसके कोई संगम की ओर झांकने तक नहीं गया। जो कि हमारी पौराणिक संस्कृति के लिए चिंता का विषय है।

सालों से कर्णप्रयाग के इस मेले में रिंगाल की कंडी बनाकर कर्णप्रयाग से करीब 70 किलोमीटर दूर पोखरी के दूरस्थ गांवों से आने वाले सुरेन्द्र लाल ने बताया कि पुराने दौर में कर्णप्रयाग के इस मेले में उनके पूर्वज इस मेले में कंडी बेचने के लिए आते थे और अब करीब 20 सालों में वे इस मेले में रिंगाल की कंडी को बेचने आते हैं। मगर कर्णप्रयाग के बिखौती मेले के घटते स्वरुप के कारण मेले में भीड़ न होने के कारण उन्की रिंगाल की कंडियां नहीं बिक पा रही है। जिससे उनका आने जाने का खर्चा भी नहीं निकल पा रहा है। उन्होंने बताया कि रिंगाल की इस कंडी को बनाने के लिए जंगल से भारी जोखिम उठा कर रिंगाल लाना पड़ता है। उसके बाद बड़ी मेहनत कर हम कंडियों को बनाते है। मगर अब धीरे धीरे लोगों का खेती से मोह भंग हो रहा है। जिससे यह हस्त शिल्प कला भी बंदी के कगार पर है।

कर्णप्रयाग के इस बिखौती मेले के घटते स्वरुप के कारण कुछ इसी प्रकार की पीड़ा मुरादाबाद से चूड़ी की दुकान लगाने आये इरफान व बिजनौर से आये महेन्द्र की भी है। 52 वर्षीय इरफान का कहना है कि कई सालों से वे इस मेले में दुकान लगाते आ रहे हैं। मगर मेलों में भीड़ न जुटने के कारण मुनाफा नहीं हो पा रहा है। महेन्द्र का कहना है कि इतनी दूर से किराया लगाकर आते है लेकिन बिखौती मेले का यह घटता स्वरुप हमने कभी नहीं देखा। जो इस बार देखने को मिल रहा है। इस बाद मुनाफा होना तो रहा दूर खर्चा भाड़ी तक नहीं निकल रहा है।

मेलों में हमारी संस्कृति व परम्परा की झलक देखने को मिलती है।  बदलते आधुनिकता के दौर में ऐसा दिखने को नहीं मिल रहा है। मूलभूत सुविधाओं के अभाव में पहाडों से दिनों दिन हो रहा पलायन व मोबाइल इंटरनेट व टीवी इसका मुख्य कारण है। मेलों का घटता स्वरुप चिंता का विषय है। सरकारों को चाहिए कि अब इस बारें में कदम उठाये और सोचें कि कैसे मेलों के घटते स्वरुप को बचाया जाये। अगर समय रहते पहाडों में हो रहे मेलों के अस्तित्व को नहीं बचाया गया तो उत्तराखण्ड के पहाड़ी जिलों की यह संस्कृति लुप्त हो जायेगी।

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चमोली/पुष्कर नेगी

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