जानिए खो-खो के नेशनल खिलाड़ी विरेंद्र सिंह रावत कैसे बने फुटबॉल ग्राउंड के बादशाह…

April 26, 2019 | samvaad365

विरेंद्र सिंह रावत.. फुटबॉल प्रेमियों के बीच एक ऐसा नाम जिसने अपना पूरा जीवन इस खेल को समर्पित कर दिया। आज विरेंद्र रावत ने जो मुकाम हासिल किया है जो नाम कमाया है उसके पीछे छिपी है उनके जीवन संघर्ष की कहानी। उन्होंने फुटबॉल के लिए न सिर्फ नौकरी छोड़ी, कर्ज लिया,बदनामी और शोषण भी सहा। लेकिन फुटबॉल के लिए उनके प्यार और जुनून ने उन्हें टूटने नहीं दिया। अपनी मेहनत लगन औऱ समर्पण के दम पर आज विरेंद्र सिंह रावत कई खेल प्रेमियों के लिए प्रेरणा बन गए हैं। 

14 फरवरी 1970 को पौड़ी जिले के कुलासु गांव में जन्मे विरेंद्र सिंह रावत के पिता चंद्र सिंह रावत फौज में सिपाही के पद पर तैनात थे और मां समुद्रा देवी एक गृहणी थीं। पांचों भाई बहनों में सबसे छोटे विरेंद्र जब महज एक साल के थे तभी उनकी मां पूरे परिवार के साथ पहाड़ से पलायन कर देहरादून आ बसीं। 6 साल की उम्र में विरेंद्र सिंह रावत ने स्कूल जाना शुरु किया और पहली कक्षा में प्रवेश लिया। खेल के लिए उनकी रूचि बचपन से ही देखी जा सकती थी। वह तीसरी कक्षा से ही खो-खो खेलने लगे।

अजबपुर के सरकारी स्कूल से पांचवी कक्षा पास करने के बाद उन्होंने भंडारी बाग स्थित लक्ष्मण विद्यालय इंटर कॉलेज में एडमिशन लिया। खो खो में नेशनल चैम्पियन बनने के बाद भी विरेंद्र संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने क्रिकेट में अपना हाथ आजमाया लेकिन खेल के दौरान उनकी बॉल से एक खिलाड़ी के चोटिल हो जाने के बाद विरेंद्र ने क्रिकेट से दूरी बना ली। विरेंद्र अपने सबसे बड़े भाई कमल रावत को फुटबॉल खेलते हुए देख प्रेरित हुए। वह भाई के साथ फुटबॉल किट लेकर ग्राउंड पर जाते और उन्हें फुटबॉल खेलते हुए देखा करते थे। साल 1980 में विरेंद्र ने भी फुटबॉल खेलना शुरु कर दिया।

विरेंद्र के सपने बड़े थे लेकिन गरीबी के चलते कंधों पर जिम्मेदारियां भी थीं। पेट पालने के लिए सभी भाई बहन कुछ न कुछ करते रहते थे। एक छोटा सा कमरा था जिस में मां के साथ पांचों भाई बहन रहा करते थे। पिताजी फौज में तैनात थे इसलिए साल में एक बार ही घर आना होता था। विरेंद्र घर में सबसे छोटे थे तो मवेशियों को चराने का काम वह करते थे। लेकिन सिर पर तो फुटबॉल की धुन सवार थी। मवेशियों को चराते हुए भी कभी चकोतरे को फुटबॉल समझकर खेलने लगते तो कभी खुद ही कपड़े की फुटबॉल बनाकर। घर की माली हालत ठीक नहीं थी इसलिए विरेंद्र ने दूध बेचने का काम भी किया लेकिन फुटबॉल के लिए प्यार हमेशा बरकरार रहा। गर्मी हो, सर्दी हो या फिर बरसात बस फुटबॉल खेलने निकल पड़ते कभी साइकिल से तो कभी पैदल। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने से साल 1986 में हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद बच्चों को ट्यूशन भी दी। फिर भी फुटबॉल के लिए समय निकाल ही लेते थे।

मैच में विरेंद्र रावत लेफ्ट आउट की पोजिशन पर खेला करते थे। उन्होंने अंडर-16 स्टेट लेवल फुटबॉल मैच खेला। जिसके बाद वह देहरा यंग क्लब से फॉरवर्ड की भूमिका में फुटबाल खेलने लगे। देहरा यंग क्लब और चांद क्लब के बीच एक मैच लीग के दौरान आखिरी क्षणों में गोल कर के विरेंद्र रातों रात सुर्खियों में आ गए।

साल 1988 में डीएवी इंटर कॉलेज से 12वीं की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने अंडर-19 स्टेट लेवल फुटबॉल मैच खेला। संघर्ष को जीवन का हिस्सा मानने वाले विरेंद्र के परिवार की माली हालत ठीक नहीं थी। लिहाजा उन्होंने घर घर जाकर दूध बेचने का काम किया। इसके बाद उन्होंने टाइपिंग का कोर्स किया और 1989 में जोगीवाला स्थित विवेकानंद स्कूल में उन्हें 500 रुपये प्रति माह में टाइपिस्ट की नौकरी मिल गई। नौकरी के साथ ही उन्होंने डीएवी पीजी कॉलेज में बीएससी में भी दाखिला ले लिया। नौकरी, पढ़ाई, फुटबॉल और ट्यूशन पढ़ाने का काम सब साथ साथ चलता रहा। फिर दो साल बाद भी नौकरी में तरक्की न मिलने पर 1993 में विरेंद्र ने डिफेन्स कालोनी स्थित डीएवी पब्लिक स्कूल में 1500 रूपये प्रतिमाह में बतौर एकाउन्टेट ज्वॉइन किया। जहां उन्होंने 5 सालों तक अपनी सेवाएं दी और उसके बाद 1999 में 2500 रूपये प्रतिमाह में एशियन स्कूल में नौकरी करने लगे। इस बीच विरेंद्र ने बीएससी भी पास कर लिया था। जिसके बाद उन्होंने एम कॉमरेलवे इंजिनियरिंग, कम्प्यूटर डिप्लोमा भी किया। साथ ही फुटबॉल के लिए अपने प्यार को भी उन्होंने कम नहीं होने दिया। वह लगातार फुटबॉल खेलते रहे और नौकरी के साथ ही फुटबाल टुर्नामेन्ट्स में हर जगह अपने हुनर के जलवे बिखेरते रहे।

फुटबॉल के क्षेत्र में विरेंद्र अच्छा खासा नाम कमा रहे थे। साल 1995, 1996 और 1997 में जिला टीम में कप्तान रहते हुए विरेंद्र ने टीम को लगातार तीन साल तक चैम्पियन बनाया।

1998 में उन्होंने उत्तर प्रदेश से रेफरी क्लास थ्री की परीक्षा पास की और रेफरी बनकर काम किया। इस दौरान भी विरेंद्र काफी नाम कमाने लगे। जहा भी वह रेफरी बनकर जाते अपने हुनर के जलवे दिखाते। उन्होंने उत्तराखंड के 13 जिलों में मुख्य रेफरी के तौर पर जिला, राज्य, राष्ट्रीय स्तर के फुटबॉल टूर्नामेंट को सफलता पूर्वक निभाया। जिसके चलते विरेंद्र को 2009 में उत्तराखंड पुलिस ने सर्वश्रेष्ठ रेफरी के सम्मान से नवाजा। 50 साल की उम्र में भी फिट रहने वाले विरेंद्र आज भी रेफरी की भूमिका निभाते हुए लगातार फुटबॉल के लिए काम कर रहे हैं।

मैच खेलते हुए विरेंद्र कई बार घायल भी हुए तो कई बार कुछ शरारती तत्वों की हरकतों का शिकार। कभी छाती में माइनर फ्रेक्चर, कभी रीढ़ की हड्डी की चोट, तो कभी गुस्साए खिलाड़ियों से पिटाई के चलते गंभीर रूप से घायल हुए। लेकिन फुटबॉल तो विरेंद्र की रग रग में घुल चुकी थी। कुछ महीनों के लिए आराम करते फिर दोगुने जोश के साथ मैदान में वापसी करते।    

अक्टूबर 1999 में विरेंद्र का विवाह एक सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाली लडकी गीता के साथ कर दिया गया। शादी के बाद जिम्मेदारियां भी बढ़ गईं थी जिससे संघर्ष का बढ़ना भी लाजिमी था। छाती में हुए माइनर फ्रेक्चर से रिकवर होने के बाद विरेंद्र ने एक बार फिर मैदान में वापसी की।

विरेंद्र ने साल 2002 में गढ़ी कैंट स्थित दून स्कूल में 4500 रुपये प्रति महीना बतौर एकाउंटेंट काम शुरु किया। नौकरी के साथ ही ट्यूशन पढ़ाना, फुटबॉल खेलना सब यूं ही चलता रहा। हालांकि विरेंद्र का सारा ध्यान फुटब़ॉल की ओर ही केंद्रित था। वह कोच और रेफरी होते हुए भी अपना नाम कमा रहे थे।

रेफरी के तौर पर भी विरेंद्र सिंह रावत ने काफी नाम कमाया। 1998 से अब तक वह स्कूलजिला, अखिल भारतीय स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर 6755 से भी ज्यादा मैच के रेफरी रह चुके हैं। साल 2004 से 2011 के बीच विरेंद्र पूरे उत्तराखण्ड में प्रचलित हो गए थे। उन्होंने उत्तराखण्ड के 13 जिलों की प्रतियोगिता में मुख्य रेफरी की भुमिका निभाई। इसके साथ ही वह नौकरी भी करते रहे। सब ठीक ठाक चल रहा था लेकिन मन में एक कसक थी कि वह अंतरराष्ट्रीय कोच या रेफरी नहीं बन पाए थे। हालांकि साल 2010 में विरेंद्र क्लास वन रेफरी बन गए थे। उनका नाम ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन को भेजा जाना था, विरेंद्र ने इसके लिए दिन रात एक किया था लेकिन उनका नाम फेडरेशन को नहीं भेजा गया। 

यह विरेंद्र की जीवन का एक टर्निंग प्वॉइंट भी था। जिसके बाद उन्होंने सबसे पहले नौकरी छोड़ दी और फिर सोसाईटी एक्ट के तहत अपने सहयोगियों के साथ उत्तराखण्ड फुटबाल रेफरी एसोसिएशन का गठन किया। विरेंद्र इस एसोसिएशन के सचिव बनाए गए। इसके साथ ही 2012 में उन्होंने देहरादून फुटबॉल एकेडमी की स्थापना की जिसमे वह संस्थापक अध्यक्ष और हेड कोच बने। इतना ही नहीं उन्होंने उत्तराखण्ड की पहली स्पोर्ट्स वेबसाइट www.rfauk.com शुरु की और इसका प्रचार प्रसार करने लगे। साथ ही साथ उन्होंने फेसबुक के माध्यम से भी लोगो को खेल के प्रति जागरूक करने का काम शुरु किया। विरेंद्र कई फुटबॉल खिलाड़ियों के कोच रहे जिनमें से जीतेंद्र सिंह बिष्ट, दीपेंद्र सिंह नेगी और अनिरूद्ध थापा जैसे खिलाड़ियों का चयन ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन एकेडमी के लिए हुआ। वहीं साल 2013 में दीपेंद्र सिंह नेगी और अनिरूद्ध थापा ने सैफ गेम्स 2013 में भारतीय टीम को गोल्ड मेडल दिलाया।

साल 2014 में फिक्की ने विरेंद्र का नाम फीफा द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सौकर सम्मेलन के लिए भेजा। लंदन में आयोजित इस सम्मेलन में विरेंद्र उत्तराखंड से एक मात्र प्रतिभागी थे। इस सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए विरेंद्र ने 4 लाख का कर्ज लिया। इस कर्ज को चुकाने के लिए भी विरेंद्र ने काफी संघर्ष किया। इस दौरान साल 2015 में वह एक धोखाधड़ी का भी शिकार हुए जिसमें उनकी फुटबॉल एकेडमी के कागजात को फर्जी तरीके से अपने नाम करवा लिया गया था। इतना ही नहीं इस मामले में विरेंद्र को जेल भी जाना पड़ा। हालांकि बाद में कोर्ट से क्लीन चिट मिलने के बाद फैसला विरेंद्र सिंह रावत के हक में आया और उन्हें एकेडमी का मालिकाना हक वापस मिल गया।

फुटबॉल के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले विरेंद्र सिंह रावत को कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। 2016 में फुटबॉल के विकास के लिए उन्हें मेजर ध्यानचंद स्पोर्ट्स अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। इसी साल उन्हें विश्व सेवा परिषद की ओर से राष्ट्रीय खेल सेवा रत्न अवार्ड और आउटस्टैंडिंग स्पोर्ट्स अवार्ड से भी नवाजा गया। वहीं फुटबॉल में उनके योगदान के लिए उन्हें एएफसीएआईएफएफ ग्रासरूट अवार्ड 2017, फिक्कीफीफा सर्टिफिकेट ऑफ रिकगनिशन अवार्ड 2017, इंटरनेशनल कोचिंग अवॉर्ड 2017, मनोरमा डोबरियाल शर्मा स्मृति इंटरनेशनल फुटबॉल कोच अवॉर्ड 2017 से सम्मानित किया गया। साल 2018 भी उपलब्धियों से भरा रहा।

इस साल वह देश के सर्वोच्च सम्मान पद्म श्री पुरस्कार 2018 के लिए नामित हुए। साथ ही एसपीओ नेशलन फुटबाल कोच अवॉर्ड 2018 , इंटरनेशनल बेस्ट फुटबाल फिल्म अवॉर्ड, रियल हीरो ऑफ उत्तराखंड अवार्ड 2018, बेस्ट फुटबाल कोच अवार्ड 2018,  बेस्ट पर्सनैलिटी फुटबाल कोच ऑफ उत्तराखण्ड 2018, नेशनल रिकगनिशन सर्टिफिकेट अवॉर्ड 2018, बेस्ट लेजेंड फुटबाल प्रमोटर अवॉर्ड ऑफ उत्तराखण्ड2018। इसके साथ ही बेस्ट रेफरी अवॉर्ड 2019, ब्रैंड आइकॉन अवॉर्ड 2019, इंडियन आइकॉन अवॉर्ड 2019, गोल्डन स्टार अवॉर्ड 2019, इंडियन एचीवमेंट अवॉर्ड 2019 के साथ ही देहरादून फुटबॉल एकेडमी को बेस्ट फुटबॉल एकेडमी ऑफ नॉर्थ इंडिया अवॉर्ड 2019 से भी उन्हें पुरस्कृत किया गया। वहीं 25 अप्रैल 2019 को उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सम्मान लाइफ टाइम एचीवमेंट अवॉर्ड 2019 से भी नवाजा गया।

विरेंद्र साल 2012 से हर वर्ष ऑल इंडिया चैलेंज कप, ऑल इंडिया गढ़वाल यूथ कप, दून कप, उत्तराखंड आंदोलनकारी शहीद मेमोरियल फुटबॉल टूर्नामेंट और उत्तराखंड सुपर लीग आयोजित कराते आ रहे हैं।  

विरेंद्र सिंह रावत ने अपने जीवन में न सिर्फ एक मुकाम हासिल किया है बल्कि कई खिलाड़ियों का मार्गदर्शक बन उन्हें भी उनकी मंजिल के करीब पहुंचाने का काम किया है। विरेंद्र ने एक बेहतरीन फुटबॉल खिलाड़ी, कोच औऱ रेफरी होते हुए भी भले ही एक साधारण जीवन जिया हो लेकिन अपनी असाधारण प्रतिभा के बूते आज विरेंद्र कई खिलाड़ियों के लिए मिसाल बन गए हैं।

विरेंद्र सिंह रावत के जीवन के कुछ अनछुए पहलू-

1994 में उत्तराखण्ड को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर महान आंदोलन हुआ। जिसमें पूरे उत्तराखण्ड से लाखों लोगो ने दिल्ली के लिए कूच किया। हज़ारों की तादाद में उत्तराखंड से दिल्ली के लिए निकले आंदोलनकारियों में विरेंद्र सिंह रावत भी अपने दोस्त रविंद्र सिहं रावत उर्फ पोलू के साथ शमिल हो गए। इस दौरान हुए मुजफ्फरनगर गोलीकांड में पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियां दागी। जिनमें से एक गोली विरेंद्र के दोस्त पोलू को जा लगी औऱ वह मौके पर ही शहीद हो गए। अपनी जान बचाने के लिए विरेंद्र गन्ने के खेत में भागे औऱ बचते बचाते 3 दिन बाद भूखे प्यासे घर पहुंचे।  

साल 2004 में विरेंद्र मसूरी के एक प्राइवेट स्कूल में अकाउंट्स ऑफिसर के पद पर तैनात थे। एक दिन जब वह ड्यूटी के बाद घर वापस जा रहे थे तो एक कार ने उनकी बाइक पर टक्कर मार दी। जिससे उनकी बाइक 60 फीट गहरी खाई में जा गिरी। इस हादसे में विरेंद्र को काफी गहरी चोटें आईं थीं। हालांकि वह इसे भगवान का आशीर्वाद मानते हैं कि ऐसे हादसे के बाद भी उनकी जान बच गई।

साल 2013 में विरेंद्र की रेफरी टीम को मुन्स्यारी में जौहर क्लब द्वारा आयोजित फुटबाल प्रतियोगिता के लिए बुलाया गया। मैच खत्म होने के बाद जब 16 जून को विरेंद्र अपने साथी प्रवीन रावत के साथ घर वापसी कर रहे थे। तभी रास्ते में भूस्खलन के चलते उन्होंने ग्वालदम रूट ले लिया। जहां पिंडर नदी ने विकराल रूप लिया हुआ था, पेड़, गाड़ियां, मकान, सड़कें, पुल, सभी नदी में समा रहे थे। काफी मशक्कत के बाद विरेंद्र अपने मित्र के साथ नारायण बगड़ पहुंचे और वहां नेगी मार्केट में शरण ली। जैसे तैसे रात बीत गई। सुबह देखा तो सब कुछ तबाह हो चुका था, सभी जगहों से कनेक्टिविटी खत्म हो चुकी थी। लेकिन फिर भी दोनों ने हार नहीं मानी 4-5 दिन तक भूखे प्यासे जंगली रास्तों में पैदल सफर करने के बाद आखिरकार घर पहुंच ही गए।

इन घटनाओं से पता चलता है कि विरेंद्र ने विषम परिस्थितयों के बावजूद कभी हार नहीं मानी। और उनका यही जज़्बा आज उन्हें इस मुकाम तक पहुंचा गया।

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संवाद365 / पुष्पा पुण्डीर

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